Jashn-e-rekhta urdu festival
उर्दू को दिवानों से सजा 'जश्न-ए-रेख्ता'
गुफ्तगू रेख्ते में हम से न कर, यह हमारी जबान है प्यारे... गालिब, मीर और फैज अहमद फैज को याद करते हुए प्रसिद्ध गीतकार और कवि गुलजार ने इस नज्म को पढ़ा। जश्न-ए-रेख्ता कार्यक्रम में गुलजार और जावेद सिद्दकी ने हम सूरतगार कुछ ख्वाबों के विषय पर चर्चा करते हुए मीर, गालिब और फैज अहमद फैज की नज्मों और उनके लफ्जों पर गुफ्तगू की। मीर पर बोलते हुए जावेद ने कहा कि मीर की जबान इतनी आसान थी कि वह आज की जबान लगती है। पर उनकी आवाज में इतनी सादगी थी कि वो उनके बाद के शायरों में देखने को नहीं मिलती। गालिब ने अपने काम को किसी ओर को तराशने के लिए दिए जाने की बात पर गुलजार ने कहा कि यह बहुत जरुरी है कि आप अपने काम को खुद तराशें। युवा शायरों में अपने काम को खुद तराशने की हिम्मत होनी चाहिए। गुलजार फैज पर कहा कि उनकी शायरी समाज से जुड़ी होती थी और मुझे भी लगता है कि आप एक समाज का हिस्सा हैं और उसका दर्द आपकी शायरी में नजर आना चाहिए। क्योकि आप अपने दौर का इतिहास हैं। आपकों जवाब देही है उस आइने से जिसके सामने आप खड़े होते हैं। जावेद ने कहा कि हम वहीं लफ्ज बोल रहे हैं जो चले आ रहे हैं, लेकिन उसे फैलाने का काम गुलजार ने किया है। उन्होंने पूछा कि आपकी शायरी में यह अक्स कहा से आते है। इस पर गुलजार ने कहा कि यह अक्स मेरी जहन में बसा है।
आज भी थिएटर की जबान है उर्दू
थिएटर के भूले हुए रंग पर सलीम आरिफ, नादीरा और सौरभ शुक्ला ने चर्चा की। इस पर सलीम आरिफ ने कहा कि 70 के दशक में 75 से 81 तक के थिएटर में हिंदुस्तानी थिएटर की शिद्दत का थिएटर मैंने दोबारा नहीं देखा। इ अकलाजी की 14-15 साल की थिएटर को लेकर एनएसडी में जो मूहीम थी उस दौरान उन्होंने हर लाइट, सेट, वेशभूषा हर लेवल पर पारंपरिक फॉर्म को नए तरीके से लोगों के सामने लाए। कुछ लोगों के काम ने आज भी थिएटर की जबान को उर्दू का बनाकर रखा है।
उर्दू के लफ्जों से फिल्मों में मिठास
60-70 के दशक में फिल्मों में उर्दू का काफी प्रयोग होता था, जो धीरे-धीरे कम हो रहा है। जावेद सिद्दकी, शर्मिला टैगोर और प्रेम चोपड़ा ने जब फिल्में उर्दू बोलती थी विषय पर गुफ्तगू की। और उस दौर में फिल्मों में उर्दू के लफ्जों से आने वाली मिठास और गीतों में उर्दू से घुलने वाले शबाब को याद किया।
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