Theater artist and former director of bhartendu natya academy surya mohan kulshrestha


थियेटर में टिक नहीं रहे हैं अच्छे अभिनेता: सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ


प्रसिद्ध थियेटर निर्देशक, संगीत नाट्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित और भारतेंदू नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ ने एनएसडी प्रथम वर्ष के छात्रों के लिए नाटक 'वासांसि जीर्णानि' का निर्देशन किया, जिसका मंचन हाल ही में एनएसडी में हुआ। यह एक पुराना मराठी नाटक है लेकिन बहुत कम बार मंच पर खेला गया है। यह बेहद मुश्किल नाटक है, स्क्रिप्ट को पढऩे के बाद समझ नहीं आता की इसे कैसे मंच पर प्रस्तुत किया जाये। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक है और यहां देश भर से छात्र चुन कर आते हैं। इसलिए मुझे लगा कि इन छात्रों के साथ कुछ चुनौतीपूर्ण करना ज्यादा अच्छा रहेगा। जो छात्रों के लिए भी चुनौतीपूर्ण हो। इसमें अभिनय कैसा हो? कैसे एक अदृश्य व्यक्ति उन लोगों के बीच बातचीत कर रहा है? अन्य लोग उसे सुन नहीं पा रहे हैं लेकिन फिर भी वह अपना आधार बनाये हुए है। इस नाटक में यह सब चुनौतियां थी इसलिए मुझे लगा कि यही नाटक है जो मुझे एनएसडी के छात्रों के साथ करना चाहिए।

चुनौतीपूर्ण स्क्रिप्ट करना है पसंद
हमारे पास कई स्क्रिप्ट आती है। लेकिन निर्देशक की हैसियत से जो स्क्रिप्ट मुझे मेरे लिए चुनौतीपूर्ण लगती है मैं उसे ही चुनता हूं, जो स्क्रिप्ट बहुत साधारण होती है जो मुझे लगता है बहुत आराम से हो जाएगी उसे मैं नहीं करता। जब तक काम से जुंझना, समझना या नए रास्ते न खोजने पड़े तब तक मुझे निर्देशन में मजा नहीं आता। इस नाटक में मंच एक नया प्रयोग रहा। जब हमने लोगों से पूछा कि सेट कैसा होना चाहिए, तो लोगों ने कहा कि बाबा का एक कमरा हो जिसमें खाट और दवाईयों के लिए अलमारी हो। काकी का कमरा हो जिसमें वह काम कर रही हो। लेकिन मुझे लगा इस नाटक में भौतिक दुनियां कि बाते कम है और लोग मन की बात ज्यादा कर रहे हैं तो हमने नीले रंग का एक साधारण सेट बनाने की सोची। जिसमें उलझी हुई दिमाग की नसों की तरह सफेद रंग की कुछ लकीरे हैं।

शरीर जीर्ण नहीं बल्कि जीवन है जीर्ण
नाटक का शीर्षक गीता के स्लोक से लिया गया है 'वासांसि जीर्णानि' का अर्थ है पुराने वस्त्र। अर्थात 'जिस प्रकार पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को ग्रहण किया जाता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होती है। लेकिन इस नाटक के परिपेक्ष में शरीर नहीं बल्कि बाबा को उसकी पूरी जिन्दगी ही जीर्ण नजर आती है। उनकी जिन्दगी के चिथड़े हो चुके हैं और वह इस जिन्दगी से निकलने का सिरा ही नहीं मिल रहा है। कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या गलत किया? क्या सही किया? बस अब यहां से मुक्ति पाना चाहते हैं। मुझे नहीं लगता कि थियेटर या किसी कला से कोई क्रांति आ सकती है। लेकिन लंबे समय तक यह चलते चलते मानव मूल्य स्थापित कर लोगों के मनों को बदलने का काम करेगा। उसके बाद लोगों को समाज को बदलना है तो बदलने का काम कर सकते हैं।

बच्चपन में भाई-बहन के साथ करते थे नाटक
लखनऊ में बच्चपन में थियेटर करते थे लेकिन तब हमे पता नहीं था कि यह थियेटर होता है। बाद में पता चला कि यह सभी लोग करते हैं। जन्माष्टमी में जब झांकियां निकलती थी तो हम घर में राधा, कृष्ण व अन्य किरदारों की वेशभूषा में खड़े हो जाते थे। इसलिए हम भाई बहनों के तय किया कुछ नया करा जाए। एक कविता चलती थी नरोत्तम दास की तब हमने उसे याद किया और तय किया कि यह हम बोलेंगे यह तुम बोलना फिर ट्रांजिस्टर आ गया तो हवामहल जैसी छोटी नाटिकाओं को सुनकर याद करके उसे किया करते थे। धीरे-धीरे हमें लोगों के घरों के बुलावा आने लग गया कि बच्चों के जन्मदिन पर भी कुछ करके दिखायें। फिर जब बड़े हुए तो समझ आया कि यह थियेटर है। इसके बाद मैने 1974से शुरूआत की, जिसके बाद 1976 में भारतेंदू नाट्य अकादमी खुली और उसमें मैने दाखिला लिया। यह मेरा सौभाग्य रहा कि उसी संस्था के पहले बैच के विद्यार्थी रहे और उसी संस्थान के निदेशक भी बने। फॉर्म के लिए मैने कभी अपने आप को बांधा नहीं। अच्छी स्क्रिप्ट ने जिस फॉर्म की डिमांड की मैने उसे उसमें डाला।

थियेटर में कुछ गिरावट आई है
हमने 1974 से जब नाटक शुरू किया था उस वक्त ज्यादातर लोग शौकिया तौर पर रंगमंच से जुड़े हुए थे। उन लोगों में जजबा था कि हमे थियेटर करना है पैसे माने की चाहत नहीं थी। बस एक जूनून की वजह से लोग थियेटर कर रहे थे, इसलिए स्क्रिप्ट भी अच्छी थी। लेकिन जब से धारावाहिक बनने लगे हैं तब से युवा करियर की तलाश में थियेटर कर रहे हैं। पर करियर थियेटर में है नहीं। निर्देशकों के लिए तो फिर भी कुछ है लेकिन अभिनेता करियर के तौर पर उस तरह से सर्वाइव नहीं कर सकते। एनएसडी, भारतेंदू नाट्य अकादमी और एमपी ड्रामा स्कूल जैसे कई तरह के संस्थान है उन्होंने प्रोफेशनल कोर्स तो चलाये। लेकिन वहां से निकलने वाले लोगों के थियेटर में करियर नहीं बना पाए। इसलिए लोगों के पास फिल्म में भी करियर बनाना एक मात्र विकल्प रह गया। इसलिए थियेटर में कुछ गिरावट आई है। पर यह खुशी की बात है कि कई लोग ऐसे भी है जो लम्बे समय से आज भी थियेटर कर रहे हैं।

डिजाइन प्राइमरी, स्क्रिप्ट हुई सेकेंडरी
थिएटर के अन्दर सबसे अधिक अहम अभिनेता होता है। लेकिन अच्छे अभिनेता थियेटर में टिक नहीं रहे हैं। इसलिए थियेटर धीरे-धीरे थियेटर डिजाइन पर अधारित होता चला गया। जिसमें अभिनेता कमजोर भी हो तो अब सेट डिजाइन, संगीत, डांस, कपड़ो की चमक और जादूई सेट से यह डिजाइन बेस्ड ड्रामा होता जा रहा है। जबकि सबसे पहले स्क्रिप्ट और फिर यह अभिनेताओं का माध्यम है। इसलिए मैं जो नाटक करता हूं उसमें कोशिश करते हैं कि अभिनेताओं के जरिए ही कहानी के पूरे सार और भाव को दर्शाया जाए। वासांसि जीर्णानी की स्क्रिप्ट ऐसी है जो हमेशा प्रासांगिक रहेगी। कुछ चीजे हमेशा से ही एक जैसी रहती है। इस तरह के सवाल हमारे और दूसरों के दिमाग में चहते रहते और चलते रहेगे। हम हमेशा सोचते हैं कि जो हुआ वह सही हुआ? या कुछ और अच्छा हो सकता था? इस तरह से सवाल हमेशा प्रासांगिक रहेंगे। हमारे यहां बहुत अजीब चीज हुई है यहां जो नौटंकीया फोक थिएटर था उसे हमारे एलीट तबके ने पिछड़ा मानकर नजर अंदाज करना शुरू कर दिया। वहीं जो नया थियेटर आया वह बिना ऑडिटोरियम के हो नहीं सकता था। अगर हम चाहे कि वासांसि को किसी गांव में करे तो वह हो नहीं सकता। जिस तरह का एक्टिंग स्टाइल है वह गांव में दिखाई और सुनाई नहीं देगा। भारत में अच्छे ऑडिटोरियम दिल्ली में तो हैं लेकिन अन्य शहरों में नहीं है। जो फॉर्म हमने डेवलप्ड किया है वह इन थियेटर के बिना हो नहीं सकता। इसलिए आम आदमी थियेटर से कटता चला गया। लेकिन महाराष्ट्र और बंगाल में अभी भी थियेटर आम आदमी की जिन्दगी का हिस्सा है। फिर लोग बोलते हैं कि दर्शक नहीं है जब दर्शकों को थियेटर से काट ही दिया गया है तो दर्शक कैसे आएगा। लेकिन विदेशों में थिएटर का अधिक महत्व है। क्योकि वहां समाज और सरकार दोनों को थियेटर का समर्थन मिलता है।



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