Kavita, ek Saans bhar ki aas

एक साँस भर की आस

सिर्फ़ साँस भर की तो आस थी, तेरे और मेरे एक होने की 
पर एक तूफ़ान उस आस को भी ले चला
आस कुछ वैसी ही जैसे समंदर के बीच खड़ी एक नाव को किनारे से मिलने की होती है,
जैसे दूर बैठे भँवरे को डाली पर लटकते फूलों के खिलने की आस रहती है
ऐसी ही आस मेरे मन में भी जागी थी, जब तुमने मेरे हाथों को थामा था
जब घंटों तक बिना कुछ बोले तुम मेरे चेहरे में कुछ तलाशते थे, और मेरे देखते ही मुस्कुराकर अपनी नज़रों को मेरे चेहरे से हटा लेते थे,
वो आस जब टूटी, तो बहुत कुछ था मेरे अंदर जो उसके साथ टूटा था,
उस नाव और उस भँवरे की तड़प को मैंने भी महसूस किया था उस दिन,
जब छोड़ कर मेरा हाथ तुमने, अपना रास्ता बदल दिया था, बदल दी थी तुमने अपनी सभी राहें जो मुझ तक आती थीं,
वो पल मेरे लिए आसान नहीं था
एक सच होता हुआ सपना था, जो अचानक टूट गया था,  
पर उस टूटे हुए सपने के दर्द से निकला था मैंने ख़ुद को, समझाया था उस दिल को जो, दर्द से नहाया हुआ था,
पर इतने अरसे बाद जब तुमसे सामना हुआ तो कुछ दिखा था मुझे तुम्हारी आँखों में
अनजान नहीं थी मैं इससे, ये वही दर्द था जिससे मैं गुज़री थी उस समय, जब तुम अपनी राहें बदल कर कहीं ओर जा रहे थे,
आज उस पल तुम्हारे अंदर भी कुछ टूटा था, जब तुम्हारी नज़र मेरी मांग़ में भरे उस लाल रंग की ओर पड़ी थी,
तुम्हारे चेहरे पर वैसी ही तड़प थी उस दिन जैसे एक साँस भर के लिए इंसान तड़पता है।
- नेहा सजवाण

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